ग़ज़ल
तरस न खाओ, मुझे प्यार कि ज़रुरत है,
मुशीर कार नहीं यार कि ज़रुरत है.
तुम्हारे माथे पे उभरे हैं, सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.
कलम की निब ने, कुरेदा है ला शऊर तेरा,
जवाब में कहाँ, तलवार की ज़रुरत है.
अदावतों को भुलाना भी, कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.
शुमार शेरों का होता है, न कि भेड़ों का,
कसीर कौमों, बहुत धार की ज़रुरत है.
तुम्हारे सीनों में आबाद इन किताबों को,
बस एक 'मुंकिर' ओ इंकार कि ज़रुरत है.
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*मुशीर कार = परामर्श दाता *ला शऊर =अचेतन मन
बहुत खूब लिखा है आपने...
ReplyDeleteतुहारे माथे पे उभरे हैं सींग के आसार,
तुम्हें तो फ़तह नहीं हार की ज़रुरत है.
मगर जीत के नशे में चूर यह कब देखते हैं कि कौन उनके पांव तले रौंदा जा रहा है.
अदावतों को भुलाना भी कोई मुश्क़िल है,
दुआ, सलाम, नमस्कार की ज़रुरत है.
सच कहा... प्यार से सब कुछ मुमकिन है.
bahut hi lajavab gazal hai badhai
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