ग़ज़ल
ज़मीं पे माना, है ख़ाना ख़राब1 का पहलू,
मगर है अर्श पे, रौशन शराब का पहलू ।
ज़रा सा गौर से देखो, मेरी बग़ावत को,
छिपा हुआ है, किसी इन्क़ेलाब का पहलू।
नज़र झुकाने की, मोहलत तो देदे आईना,
सवाल दाबे हुए है,जवाब का पहलू।
पड़ी गिज़ा ही, बहुत थी मेरी बक़ा के लिए,
बहुत अहेम है मगर, मुझ पे आब का पहलू।
ख़ता ज़रा सी है, लेकिन सज़ा है फ़ौलादी,
लिहाज़ में हो खुदाया, शबाब का पहलू।
खुली जो आँख तो देखा, निदा2 में हुज्जत थी,
सदाए गैब में पाया, हुबाब3 का पहलू।
तुम्हारे माजी में, मुखिया था कोई, गारों में,
अभी भी थामे हो उसके निसाब4 का पहलू।
बड़ी ही ज़्यादती की है, तेरी खुदाई ने,
तुझे भी काश हो लाज़िम हिसाब का पहलू।
ज़बान खोल न पाएँगे, आबले दिल के,
बहुत ही गहरा दबा है, इताब5 का पहलू।
सबक़ लिए है वह, बोसीदा दर्स गाहों के ,
जहाने नव को सिखाए, सवाब का पहलू।
तुम्हारे घर में फटे बम, तो तुम को याद आया,
अमान ओ अम्न पर लिक्खे, किताब का पहलू।
उधम मचाए हैं 'मुंकिर' वह दीन ओ मज़हब के ,
जुनूँ को चाहिए अब सद्दे बाब6 का पहलू..
1- बर्बादी 2-ईश वाणी 3- बुलबुले 4- Cource 5- सज़ा 6- समाप्त
बड़ी ही ज्यादती की है तेरी खुदाई ने,
ReplyDeleteतुझे भी काश हो लाजिम हिसाब का पहलू।
khub kahe aapne ye she'r'............badhayee
arsh
बहुत उम्दा गज़ल है।बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन शेर,
ReplyDeleteउम्दा गजल।
मुबारकवाद।