ग़ज़ल
ये तसन्नो में डूबा हुवा, प्यार है,
क्या कोई चीज़ फिर, मुफ़्त दरकार है.
फैली रूहानियत की, वबा क़ौम में,
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
जिस्म मफ़्लूज है, रूह बीमार है.
नींद मोहलत है इक, जागने के लिए,
जाग कर सोए तो नींद, आज़ार है.
बुद्धि हाथों पे सरसों, उगाती रही,
बुद्धू कहते रहे, ये चमत्कार है.
मुज़्तरिब हर तरफ़, सीधी जमहूर है,
मुन्तखिब की हुई, किसकी सरकार है.
बाँटता फिर रहा है, वो पैग़ामे मौत,
भीड़ थमती है, जैसे तलबगार है.
एक झटके में जोगी, कहीं जा मर,
क़िस्त में मौत तेरी, ये बेकार है.
हों न'मुंकिर' इबारत ये उलटी सभी,
ले के आ आइना वोह मदद गर है.
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*आज़ार=रोग *मुज़्तरिब=बेचैन *मुन्तखिब=चुनी हुई.
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