ग़ज़ल
जब से हुवा हूँ बे ग़रज़, शिकवा गिला किया नहीं,
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.
कोई यहाँ बुरा नहीं, कोई यहाँ भला नहीं.
अपने वजूद से मिला तो मिल गई नई सेहर,
माज़ी को दफ़्न कर दिया, यादों का सिलसिला नहीं.
पुख्ता निज़ाम के लिए, है ये ज़मीं तवाफ़ में,
जीना भी इक उसूल है, दिल का मुआमला नहीं.
बख्शा करें ज़मीन को, मानी मेरे नए अमल,
मेरे लिए रिवाजों का, कोई काफ़िला नहीं.
ज़ेहनों के सब रचे मिले, सच ने कहाँ रचा इन्हें,
ढूँढा किए खुदा को हम, कोई हमें मिला नहीं.
थोडा सा और चढ़ के आ, हस्ती का यह उरूज है,
कोई भी मंजिले न हों, कोई मरहला नहीं.
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वाह!
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