Tuesday, April 28, 2009

ग़ज़ल - - -बहुत दुखी है जीता है वह बस केवल अभिलाषा में


ग़ज़ल

बहुत दुखी है जीता है वह, बस केवल अभिलाषा में,
सांस ऊपर की आशा में ले, नीचे जाए निराशा में.

बड़ी तरक्की की है उसने, लोगों की परिभाषा में,
पाप कमाया मन मन भर, और पुन्य है तोला माशा में.

अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.

महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.

ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.

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3 comments:

  1. सुंदर ग़ज़ल मुंकिर साब

    "महशर के इन हंगामों को .." वाला शेर जबरदस्त है और मक्ता तो बस गज़ब ढ़ाता हुआ

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  2. बड़ी तरक्की की है उसने लोगों की परिभाषा में,
    पाप कमाया मन मन भर और पुन्य है तोला माशा में.

    kya baat hai...!

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  3. कमाल है अबकी बार तो उर्दू से भी बेहतर हिन्दी

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