Sunday, August 19, 2018

जुंबिशें - - - नज़्म 33 हक़ बजानिब1


33

हक़ बजानिब1 

वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,
इस सेह्र किब्रिया में न आया तो ठीक था.

गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,
पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था.

फरमूदः ए फ़लक के तज़ादों छोड़ कर,
धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था.

माटी सभी की जननी शिकम भरनी तू ही है,
पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था.

ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं हैं ज़िन्दगी,
तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था.

पेड़ों की बरकतों से सजी कायनात है,
उन पर ख़िरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था.

आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर११,
इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था.

इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,
औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था.

नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,
साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था.

गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,
ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र१३ जो भाया तो ठीक था.

फ़िर ज़िन्दगी को रक़्स की आज़ादी मिल गई,
'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था.

१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज 
८-किरने ०-ब्रह्मांड १०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.

حق بجانب

،وحدانیت کے بُت کو گرایا ، تو ٹھیک تھا 
اس سحرِ کبریا کو نکارہ ، تو ٹھیک تھا ٠

،گر حُسن کو بتوں میں سمایا ، تو ٹھیک تھا 
پتھر میں آستھا کو تراشہ ، تو ٹھیک تھا ٠

،فر مودہء فلک  کے تقاضوں کو چھوڑکر  
دھرتی کے مول منر جو پایا ، تو ٹھیک تھا ٠

،ماٹی سبھی کی جننی ، شکم بھرنی تو ہی ہے 
پُرکھوں نے تیرے مان کو پوجا ، تو ٹھیک تھا ٠

،اے آفتاب تیری ، شعایں ہیں زندگی 
تجھکو اُنہوں نے شیش نوایا ، تو ٹھیک تھا ٠

،پیڑوں کی برکتوں  سے سجی کاینات ہے 
اس پر کسی نے پانی چڑھایا ، تو ٹھیک تھا ٠

،آتے ہیں سب کے کام مویشی عزیز تر 
انکو جنوں کے ساتھ جو چاہا ، تو ٹھیک تھا ٠

،اک سلسلہ ہے مرد پیمبر کا آج تک 
عورت کے حق کو دیوی بنایا ، تو ٹھیک تھا ٠

،ندیوں ، سمندروں سے ہمیں زندگی ملی 
ساحل پہ انکے جشن منایا تو ٹھیک تھا ٠ 

،گُنجائشیں نہیں ہوں جہاں اجتہاد میں 
ایسے لُطفِ کُفر جو بھایا تو ٹھیک تھا ٠

،پھر زندگی کو رقص کی آزادی مل گئی 
منکر نے سازِ نو جو اُٹھایا تو ٹھیک تھا ٠ 

3 comments:

  1. बहुत खूब मुनकिर साहब ! आप तो दारा शुकोह जैसी समन्वयवादी विचारधारा के पोषक हैं. पर अफ़सोस ! आज भी तख़्त पर औरंगज़ेब का ही क़ब्ज़ा है.

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  2. आदरणीय मुनकिर जी - परम सौभाग्य जो आपके ब्लॉग पर आई |आपकी रचना के सभी अशार बहुत ही अच्छे हैं | सच कहूं तो उर्दू सीखने की हसरत मन में ही रह गई पर जहाँ भी उर्दू की रचनाएँ देखती हूँ सम्मान में रुक जाती हूँ | आपकी लेखनी का प्रवाह बना रहे मेरे दुआएं |

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