Wednesday, August 8, 2018

जुंबिशें - - - नज़्म 22 रख़ने फरोश


22

रख़ने फ़रोश 

दूर पंडितों से रह, मुर्शिदों से बच के चल,
हट के इनकी राह से अपनी रहगुज़र बदल.

धर्मों के दलाल हैं, ये मज़हबों के जाल हैं,
शब्द बेचते हैं यह, और मालामाल हैं.

इनके दर पे ग़ार है, रास्तों में ख़ार है, 
बाहमी ये एक हैं, देव बे शुमार हैं.

घुन हैं यह समाज के,खा रहे हैं फ़स्ल को.
क़ातिलान ए मोहतरम, जप रहे हैं नस्ल को.

इनकी महफ़िलों में हैं, बे हिसी की लअनतें,
खोखली हैं आज तक, बज़्म की सदाक़तें.

इर्तेक़ा1 के पांव में, डाले हैं यह बेड़ियाँ,
इनकी धूम धाम में, गुम सी हैं तरक़्क़ियाँ.  

मज़हबी इमारतें, हासिल ए मुआश2 हैं,
मकर की ज़ियारतें3, झूट की तलाश हैं.

खा के लोग मस्त हैं, पुर फरेब गोलियाँ,
पढ़ रहे हैं सब यहाँ, तोते जैसी बोलियाँ.

ख़ैर कुछ नहीं यहाँ, गर है कुछ शर4 ही शर,
ख़ुद में बस कि ऐ बशर, तू ज़रा सा सज संवर.

इनके आस्ताँ पे तू , बस कि मह्व ख़ाब5 है,
न कहीं सवाब है, न कहीं अज़ाब है.

इन से दूर रह के तू , सच की राह पाएगा,
इनके हादसात से, अपने को बचाएगा.

मुंकिरे-निसाब6 बन, अपनी इक किताब बन,
ख़ुद में आफ़ताब बन, खुद में माहताब बन.

1-रचना काल 2-भरण-पोषण 3-दर्शानालय-4-उपद्द्रो  5-स्वप्न-मगन  6 -पाठ्य क्रम 

رخنے فروش

،دور پنڈتوں سے رہ ، مُرشدوں سے بچ کے چل 
ہٹ کے ان کی راہ سے ، اپنی رہ گزر بَدَل٠

،دھرم کے دلال ہیں ، یہ مذہبوں کے جال ہیں 
لفظ بیچتے ہیں یہ ، اور مالا مال ہیں ٠

،انکے در پہ غار ہیں ، راستوں پہ خار ہیں 
باہمی یہ ایک ہیں ، دیو بے شمار ہیں ٠

،گھُن ہیں یہ سماج کے ، کھا رہے ہیں فصل کو 
یہ تو بس قصائی ہیں ، جپ رہے ہیں نسل کو ٠

،ان کی محفلوں میں ہیں ، بے ہسی کی لعنتیں 
کھوکھلی سی ہیں سبھی ، بزم کی صداقتیں ٠

،مذہبی عمارتیں ، حاصل معاش ہیں 
مکر کی زیارتیں ، جھوٹ کی تلاش ہیں٠ 

،خیر کچھ نہیں یہاں ، جو بھی ہے وہ شر ہی شر 
خود میں بس کہ اے بشر ، تو ذرا سا سج سنور ٠

،ان کے آستانوں پر لوگ محو خواب ہیں 
جن کا محتسب نہ ہو ، ایسے لاجواب ہیں ٠

،ان سے دور رہ کے تو ، سچ کی راہ پائیگا 
ان کے حادثات سے ، خود کو تو بچایگا ٠

،منکر نصاب بن ، اپنی اک کتاب بن 
خود میں ما ہتاب بن ، خود میں آفتاب بن ٠ 

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