क़तआत
चल दिए दबे क़दम किधर , ज़ाहिद तुम,
साथ में लिए हुए ये मुल्हिद तुम ,
पी ली उसकी या पिला दिया अपनी मय ,
था तुम्हारा नक्काद ये और नाक़िद तुम .
जब गुज़रे हवादिस तो तलाशे है दिमाग,
तब मय की परी हमको दिखाती चराग़,
रुक जाती है वजूद में बपा जंग,
फूल बन कर खिल जाते हैं दिल के सब दाग
औलादें बड़ी हो गईं, अब उंगली छुडाएं ,
हमने जो पढाया है इन्हें, वो हमको पढ़ें,
हो जाएँ अलग इनकी नई दुनया से,
माँ बाप बचा कर रख्खें, अपना खाएँ.
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