Monday, October 14, 2013

junbishen 87




नज़्म 
बदबूदार ख़ज़ानें

माज़ी1 का था समंदर, देखा लगा के ग़ोता,
गहराइयों में उसके, ताबूत कुछ पड़े थे,
कहते हैं लोग जिनको, संदूकें अज़मतों2 की,
बेआब जिनके अंदर, रूहानी मोतियाँ थीं.
आओ दिखाएँ तुमको रूहानी अज़मतें कुछ ----

अंधी अक़ीदतेंथीं, बोसीदा आस्थाएँ,
भगवान राजा रूपी, शाहान कुछ ख़ुदा वंद,
मुंह बोले कुछ पयम्बर, अवतार कुछ स्वयम्भू ,
ऋषियो मुनि की खेती, सूखी पडी थी बंजर।

शरणम कटोरा गच्छम, खैरात खा रहे थे।
रूहानियत के ताजिर, नोटें भुना रहे थे।

उर्यानियत5 यहाँ पर देवों की सभ्यता थी ,
डाकू भी करके तौबा, पुजवा रहे हैं ख़ुद को,
कितने ही ढलुवा चकनट, मीनारे-फ़लसफ़ा थे।
संदूक्चों में देखा, आडम्बरों के नाटक,

करतब थे शोबदों के, थे क़िज़्ब के करश्में,
कुछ बेसुरी सी तानें, कुछ बेतुके निशाने,
फ़रमान ए आसमानी9, दर् असल हाद्सती10 ,
आकाश वानिया कुछ, छलती, कपटती घाती।

थीं कुछ कथाएँ कल्पित, दिल चस्प कुछ कहानी,
कुछ किस्से ईं जहानी11 , कुछ किस्से आंजहानी12
जंगों की दस्तावेज़ें, जुल्मों की दास्तानें,
गुणगान क़ातिलों के, इंसाफ़ के फ़सानें।

पाषाण युग की बातें, सतयुग पे चार लातें,
आबाद हैं अभी भी, माज़ी की क़ब्र गाहें,
हैरत है इस सदी में, ये बदबू दार लाशें,
कुछ लोग सर पे लेके अब भी टहल रहे हैं।

1 -अतीत 2 -मर्यादाएं 3 -आस्था 4-जीर्ण 5-नागापन 6-दार्शनिकता के स्तम्भ 7-तमाशा 8- मिथ्या 9-आकाश वाणी 10-दुखद 11-इस जहान के 12 उस जहान के। 

No comments:

Post a Comment