ग़ज़ल
तोहमत शिकस्ता पाई की, मुझ पर मढ़े हो तुम,
राहों के पत्थरों को, हटा कर बढ़े हो तुम?
कोशिश नहीं है, नींद के आलम में दौड़ना,
बेदारियों की शर्त को, कितना पढ़े हो तुम?
बस्ती है डाकुओं की, यहाँ लूट के ख़िलाफ़ ,
तक़रीर ही गढे, कि जिसारत गढ़े हो तुम?
अलफ़ाज़ से बदलते हो, मेहनत कशों के फल,
बाज़ारे हादसात में, कितने कढ़े हो तुम।
इंसानियत के फल हों? धर्मों के पेड़ में,
ये पेड़ है बबूल का, जिस पे चढ़े हो तुम।
"मुंकिर" जो मिल गया, तो उसी के सुपुर्द हो,
खुद को भी कुछ तलाशो,लिखे और पढ़े हो तुम.
शिकस्ता पाई=सुस्त चाल
क्या तुमपे नज्म निगार कहे, क्या शेरों-अशआर कहे..,
ReplyDeleteसफ्हों की रेशमी चादर पर, खुद कसीदे-कढ़े हो तुम.....
जबरदस्त अशआर हैं सभी इस गज़ल के ... बहुत उम्दा गज़ल ...
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