Friday, October 4, 2013

junbishen 82

ग़ज़ल 

अपने ही उजाले में, जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को, पिए जा रहा हूँ मैं.

होटों को सिए, हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के, किए जा रहा हूँ मैं।

मज़हब के हादसात, पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को, जिए जा रहा हूँ मैं।

इक दिन ये जनता फूंकेगी, धर्मों कि दुकानें,
इसको दिया जला के, दिए जा रहा हूँ मैं।

फिर लौट के आऊंगा, कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को, लिए जा रहा हूँ मैं।

फिर चाक न कर देना, सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का ग़रेबान सिए जा रहा हूँ मैं.

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