Sunday, July 28, 2013

junbishen 49


नज़्म
कब तक ?

अंधी गुफाओं में कब तक छुपोगे ?
नस्लों के हमराह कब तक चुकोगे ?
गुमबद, शिवालों के कारीगरों पर ,
सदियों से झुकते हो, कब तक झुकोगे ?

क़ौमे नई सीढियाँ गढ़ रही ,
देखो ख़लाओं की छत चढ़ रही हैं ,
तुम हो कि माज़ी से लिपटे हुए हो ,
नस्लें तुम्हारी दुआ पढ़ रही हैं .

जागो नई रोशनी आ गयी है ,
सच्चाइयों को ज़मीन पा गयी है ,
रस्मों के जालों में उलझे हुए हो ,
तह्जीबे नव, इससे घबरा गयी है .

पीछे बहुत रह न जाओ दिवानो ,
न ख़्वाबों की जन्नत में जाओ दिवानो ,
बच्चों को आगे बढाओ दिवानो ,
'मुंकिर' के संग जाग जाओ दिवानो .
खलाओं =क्षितिजो

1 comment:

  1. मौजे वही मंजर वही पानी औ समंदर भी वही है..,
    माज़ी वही मंजिल वही जीने का पत्थर भी वही है..,
    सिर्फ रूहों ने ही नौ जहान में बदले पहरने-बदन..,
    महरो-माह वही सिपहर वही तबक़गर भी वही है.….

    माज़ी = इतिहास
    तबक़गर = सोने चाँदी आदि के पत्तर बनाने वाला

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