रुबाइयाँ
इन्सान के मानिंद हुवा उसका मिज़ाज ,
टेक्सों के एवज़ में ही चले राजो-काज,
है दाद-ओ-सितद में वह बहुत ही माहिर,
देता है अगर मुक्ति तो लेता है खिराज.
अल्फाज़ के मीनारों में क्या रख्खा है,
सासों भरे गुब्बारों में क्या रख्खा है,
इस हाल को देखो कि कहाँ है मिल्लत,
माज़ी के इन आसारों में क्या रख्खा है.
हिस्सा है खिज़िर का इसे झटके क्यों हो,
आगे भी बढ़ो राह में अटके क्यों हो,
टपको कि बहुत तुमने बहारें देखीं,
पक कर भी अभी शाख में लटके क्यों हो.
उस दिलगुदाज शाखे-समर ने शर्मा के कहा..,
ReplyDeleteकिस किस को मिलूँ मैं के यहाँ दामन हजार हैं.....
आपकी इस शानदार प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार २३/७ /१३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है सस्नेह ।
ReplyDeleteबहुत खूब ... मज़ा आ गया इन रुबाइयों का ...
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