Wednesday, July 10, 2013

junbishen 41


ग़ज़ल

ख़ारजी हैं सब तमाशे, साक़िया इक जाम हो,
अपनी हस्ती में सिमट जाऊं, तो कुछ आराम हो।

खुद सरी, खुद बीनी, खुद दारी, मुझे इल्हाम है,
क्यूं ख़ुदा साज़ों की महफ़िल से, मुझे कुछ काम हो।

तुम असीरे पीर मुर्शिद हो, कि तुम मफ़रूर हो,
हिम्मते मरदां न आई, या कि तिफ़ले ख़ाम हो।

हाँ यक़ीनन एक ही, लम्हे की यह तख्लीक़ है,
वरना दुन्या यूं अधूरी, और तशना काम हो।

हम पशेमाँ हों कभी न फ़ख्र के आलम में हों,
आलम मासूमियत हो बे ख़बर अंजाम हो।

अस्तबल में नींद की, मारी हैं "मुंकिर" करवटें,
औने पौने बेच दे घोडे को खाली दाम हो.

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