नज़्म
राज़ ए ख़ुदावन्दी
क़ैद ओ बंद तोड़ के निकलो, ऐ तालिबान ए फ़रेब,1
तुम हो इक क़ैदी, मज़ाहिब के ख़ुदा खानों के।
हम तुम्हें राज़ बताते हैं, ख़ुदा वन्दों के,
साकितो,२ सिफ़्र३ ओ नफ़ी४ ,अर्श के बाशिंदों के।
यह तसव्वर५ में जन्म पाते हैं,
बस कयासों६ में कुलबुलाते हैं।
चाह होते हैं यह, समाअत७ की,
रिज्क़८ होते हैं यह, जमाअत९ की।
यह कभी साज़िसों में पलते हैं,
जंग की भट्टियों में ढलते हैं.
डर सताए तो, यह पनपते हैं,
गर हो लालच तो, यह निखरते हैं.
यह सुल्ह नमाए फ़ातेह10 भी हुवा करते हैं,
पैदा होते हैं नए, कोहना11 मरा करते हैं.
हम ही रचते हैं इन्हें, और कहा करते हैं,
सब का ख़ालिक़12 है वही, सब का रचैता वह है.
१-छलावा की चाह वाले २-मौन ३-शुन्य ४-अस्वीक्र्ती५-कल्पना ६-अनुमान ७-श्रवण शक्ति ८-भोजन ९-टोली १०-विजेता की संधि ११-पुराना १२-जन्म -दाता
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