Tuesday, September 4, 2018

जुंबिशें - - - नज़्म 49 वजूद के औराक़


49

वजूद के औराक़ 

इर्तेक़ा1 के मेरे औराक़2 पढ़ो,
लाखों सालों का सफ़र है मेरा,
हादसों और वबाओं से बचाता खुद को,
अरबों सालों की विरासत हूँ मैं.

इर्तेक़ा के मेरे औराक़ पढ़ो,

जानते हो मुझे तुम लाल बुझक्कड़ की तरह,
नाप देते हो मुझे तुम कभी कुछ सालों में,
तो कभी पाते हो कुछ सदियों की तारीख़ों में,
मेरे आग़ाज़ का पुतला बनाए फिरते हो,
कुंद ज़ेहनों से गढ़ा धरती का पहला इन्सां,
जा बजा उसकी कहानी सुनाए रहते हो,
मेरे माज़ी के वकीलान ओ गवाहान ए वजूद,
तुमको लाहौल3 के शैतान नज़र आते हैं.

इर्तेक़ा के मेरे औराक़ पढ़ो,

मेरे माज़ी में नहीं है, कहीं भी कुफ़्र4 कोई,
नक़्श फ़ितरत5 हूँ , सदा मुंकिर ओ इक़रारी6 हूँ,
लड़ते भिड़ते हों ख़ुदा जब तो खुला मुल्हिद7 हूँ,
दहरी8 गोदों का हूँ पर्वर्दा9, दहरिया हूँ मैं.

इर्तेक़ा के मेरे औराक़ ढ़ो,

मेरी तहज़ीब तो ज़ीने बज़ीने चढ़ती है, 
अपने बुन्याद के पत्थर का पास रखते हुए,
वक़्त को रोज़ नए रूप का पैकर10 देकर,
हस्त और बूद11 को कुछ नक़्श ए क़दम देती है.
मेरी तहज़ीब रवाँ रहती है आगे के लिए,
वादी में बस्ती हुई, पर्बतों पे चढ़ती हुई,
देवियाँ रचती हुई, देवता रचाती हुई,
नित नई खोज नए इल्म ओ फ़न को पाती हुई,
जनती रहती है अजंता, एलोरा, खजुराहो,
मिस्र को क़ल्ब ए पिरामेड अता करती है,
रुक भी जाती है पड़ाओं पे कभी थक कर ये, 
जिसको कुछ लोग ये कहते हैं की मंजिल है यही,

इर्तेक़ा के मेरे औराक़ पढ़ो,

रख़ने12 आते हैं सफ़र में मेरे अकसर यूँ ही,
और आती है गुबारों की फ़िज़ा राहों में,
मैं ज़रा देर को रुक जाता हूँ,
उनकी गिरदान13 हुवा करती है उलटी गिनती,
वह तवाज़ुन14 को तहो बाला15 किया करते हैं,
ज़ाया कर देते हैं बरसों की जमा पूँजी को,
ज़ेर ए पा16 ज़ीने हटाते हैं, मेरे हासिल के,
करते रहते हैं मुअल्लक़17 मेरी मीनारों को,
बरसों लगते हैं मुझे फिर से सतह पाने में,

इर्तेक़ा के मेरे औराक़ पढ़ो,

मेरी तक्मीली हक़ीक़त ये है - - -
" वादी मख़लूक़18 की है और गुल ए हक़  मैं हूँ,
मेरे खुशबू को नज़रिए की ज़रुरत ही नहीं. 
बनने वाला हूँ मुकम्मल इन्साँ,
मेरी रंगत को नहीं चाहिए कोई मज़हब."

1 रचना 2 पृष्ट 3 धिक्कार 4 अधर्म 5 प्रकृति का चिन्ह 6 नकारना और माँ लेना 7 नास्तिक 8 लोक 
9 पला हुवा 10 रूप 11 स्तित्व 12 रूकावट 13 गिनना 14 संतुलन 15 डावाँ डोल 16 पाँव तले 17 लंबित 18 प्राणी 


وجود کے اوراق

- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو
،لاکھوں سالوں کا سفر ہے میرا 
،حادثوں اور وباؤں سے، بچاتا خود کو 
،اربوں سالوں کی، وراثت ہوں میں 
- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو
،ناپ دیتے ہو مجھے تم ، کبھی کُچھ سالوں میں 
،تو کبھی پاتے ہو صدیوں کی تواریخ میں تم 
،مرے آغاز کا پُتلا بھی بنایا تمنے  
،کند ذہنو سے بناتے ہوئے پہلا انسان  
،جا بجا اسکی کہانی بھی رچا کرتے ہو
،میرے ماضی کے وکیلان و گواہان وجود 
تم کو لاحول کے شیطان نظر آتے ہیں ٠ 
- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو 
،میرے ماضی میں نہیں ہے ، کہیں بھی کُفر کوئی 
،نقش فطرت ہوں ، صدا منکر و اقراری ہوں 
،لڑتے بھڑتے ہوں خدا جب تو کُھلا مُلحد ہوں 
دہری گودوں کا ہوں پروردہ ، دہریہ ہوں میں٠ 
- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو
،مری تہذیب تو سینہ بسینہ چلتی ہے  
،اپنے بنیاد کے پتھر سے گلے ملتی ہوئی 
،وقت کو روز نئے روپ کا پیکر دیکر 
،عالمِ رقص میں کچھ نقشِ قدم دیتی ہے 
،میری تہذیب رواں رہتی ہے آگے کے لئے 
،گھاٹی میں بستی ہوئی ، پربتوں کو چڑھتی ہوئی 
،جنتی رہتی ہے- - - اجنتا ، الورا ، کھجُرا ہو 
،مصر کے قلب ، پرامیٹ عطا کرتی ہے 
،دیوتا رچتی ہوئی ، دیویاں رچاتی ہوئی 
،نت نئی دُھن ، نئے علم و فن گاتی ہے 
،رُک بھی جاتی ہے ، پڑاؤ پہ کبھی سُستاتی 
جس کو کچھ لوگ سمجھتے ہیں کہ منزل ہے یہی ٠ 
- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو
،رخنے آتے ہے سفر میں مرے اکثر یوں ہی  
،اور آتی ہے غُباروں کی فضا راہوں میں 
،میں ذرا دیر کو رُک جاتا ہوں ، 
،اُنکی گردان ہوا کرتی ہے اُلٹی گنتی
،وہ توازن کو تہ و بلا کیا کرتے ہیں 
،ضایع کرتے ہیں وہ برسوں کی جمع پونجی کو 
،زیرِ پا زینے ہٹا دیتے ہیں
،کرتے رہتے ہیں معلّق مری میناروں کو 
،برسوں لگتے ہیں مجھے پھر سے سطح پانے میں 
- - -- - -اِرتقاء کے مرے اوراق پڑھو


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