Thursday, January 30, 2014

junbishen 139



ग़ज़ल 
बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.

मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.

ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.

वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.

बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.

शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत, मौतें तेरी दी हुई हैं.

हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.

1 comment:

  1. मेरी नज्म साज साज है मेरी नब्ज नाज़ो-नियाज़ है..,
    मेरे हर्फ़ सोज़े-गुदाज है ये तस्दीह भी आखरी हुई.....

    नाजो-नियाज़ = नाजनीं को सप्रेम भेंट
    तस्दीह = पीड़ा
    आखरी = अद्वितीय

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