Saturday, January 18, 2014

Junbishen 134


नज़्म 

घुट्ती रूहें

हाय ! लावारसी में इक बूढ़ी,
तन से कुछ हट के रूह लगती है।
रूह रिश्तों का बोझ सर पे रखे ,
दर-बदर मारी मारी फिरती है।
सब के दरवाज़े  खटखटाती है,
रिश्ते दरवाज़े  खोल देते हैं,
रूह घुटनों पे आ के टिकती है,
रिश्ते बारे-गरां को तकते हैं,
वह कभी बोझ कुछ हटाते हैं,
या कभी और लाद देते हैं।

रूह उठती है इक कराह के साथ,
अब उसे अगले दर पे जाना है.
एक बोझिल से ऊँट के मानिंद,
पूरी बस्ती में घुटने टेकेगी,
रिश्ते उसका शिकार करते हैं,
रूह को बेकरार करते हैं।
साथ देते हैं बडबडाते हुए,
काट खाते हैं मुस्कुराते हुए।

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