रुबाइयाँ
फ़न को तौलते रहे, गारत थी फ़िक्र,
था मेराज पर उरूज़, नदारत थी फ़िक्र,
थी ग़ज़ल ब-अकद, समाअत क्वाँरी,
थी ज़बाँ ब वस्ल , ब इद्दत थी फ़िक्र.
खुद मुझ से मेरा ज़र्फ़ जला जाता है,
कज़ोरियों पर हाथ मला जाता है,
दिल मेरा कभी मुझ से बग़ावत करके,
शैतान के क़ब्ज़े में चला जाता है.
कारूनी ख़ज़ाना है, हजारों के पास,
शद्दाद की जन्नत, बे शुमारों के पास,
जम्हूरी तबर्रुक की ये बरकत देखो,
खाने को नहीं है थके हारों के पास.
उम्दा....
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