नज़्म
मुन्सिफ़ हाज़िर हो
ऐ अदालत तेरे आँखों में हैं क़ातिल के नुकूश ,
और तेरे सर पे, बड़ी बेटी की शादी तय है,
इक बड़ी दौरी को भरना है, तुझे वर है सही ,
अस्मत ए अद्ल को बेचेगा, तू रंडी की तरह।
मरने वाले का मैं वालिद , तू है बेटी का पिता ,
हार जाऊंगा मुक़दमा , मैं बड़ा मुफ़लिस हूँ .
मशविरा है ये मेरा , छोड़ो अदालत के तवाफ़ ,
सब्र कर डालो , मुक़दमे का न चक्कर पालो ,
बख्श दें मुद्दई हर छोटे गुनह गारों को ,
और बड़े से तो ये बेहतर है, कि वह खुद ही निपटें ,
कल की बातें हैं अदालत , ये गवाही , ये वकील ,
आज पैसे का खिलौना है ये ज़हरीला निजाम ,
नहीं इंसाफ अगर है तो तबाही है यहाँ ,
यह बना होगा कभी सिद्क़ की मीनारों पर ,
आज यह सब से बड़ा रिशवतों का अड्डा है .
तुम ज़मीरों में बसे हो तो, बहादर भी बनो ,
वरना बुज़दिल की तरह जा के खुद कुशी कर लो .
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