Tuesday, January 14, 2014

Junbishen 132


ग़ज़ल 
उसकी टेढी नज़र है,
सिर फिरी राह पर है।

तेरा पत्थर का दिल है,
मेरा शीशे का घर है।

मसख़रा आ गया है,
आबरू दाँव पर है।

हो गए हैं वो राज़ी ,
साथ में इक मगर है।

इल्मे-नव शेख़ समझें?
नए मानो का डर है।

निभावो या की जाओ ,
तुम्हीं पर मुनहसर है।

खेतियाँ बस कमल की,
बाग़ बानी में शर है।

दुश्मनों में घुसे वह,
उन में दिल है, जिगर है।

1 comment:

  1. पुर बहाराँ में खुशरंग गुल खिल के कह रहा..,
    जहां सुबहे सादिक हुई वहीँ उम्मीदे-बर है.....

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