Sunday, February 2, 2014

Junbishen 140


ग़ज़ल 
तुम तो आदी हो सर झुकने के,
बात सुनने के, लात खाने के।

क्या नक़ाइस हैं, पास आने के,
फ़ायदे क्या हैं, दिल दुखाने के?

क़समें खाते हो, बावले बन कर,
तुम तो झूटे हो इक ज़माने के।

लब के चिलमन से, मोतियाँ झांकें,
ये सलीक़ा है, घर दिखाने के।

ले के पैग़ाम ए सुल्ह आए हो,
क्या लवाज़िम थे, तोप ख़ाने के।

मैं ने पूछी थी खैरियत यूं ही,
आ गए दर पे, काट खाने के।

जिन के हाथों बहार बोई गईं,
हैं वह मोहताज दाने दाने के।
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