नज़्म
हक़ बजानिब1
वहदानियत2 के बुत को गिराया तो ठीक था,
इस सेह्र किब्रिया३ में न आया तो ठीक था।
गर हुस्न को बुतों में उतारा तो ठीक था,
पत्थर में आस्था को तराशा तो ठीक था।
फरमूदः ए फ़लक़ ४ के तज़ादों५ छोड़ कर,
धरती के मूल मन्त्र को पाया तो ठीक था।
माटी सभी की जननी शिकम६ भरनी तू ही है,
पुरखों ने तुझ को माता पुकारा तो ठीक था।
ऐ आफ़ताब7! तेरी शुआएं ८ हैं ज़िन्दगी,
तुझ को किसी ने शीश नवाया तो ठीक था।
पेड़ों की बरकतों से सजी कायनात९ है,
उन पर खिरद१० ने पानी चढाया तो ठीक था।
आते हैं सब के काम मवेशी अज़ीज़ तर ११ ,
इन को जूनून के साथ जो चाहा तो ठीक था।
इक सिलसिला है, मर्द पयम्बर का आज तक,
औरत के हक़ को देवी बनाया तो ठीक था।
नदियों,समन्दरों, से हमे ज़िन्दगी मिली,
साहिल पे उनके जश्न मनाया तो ठीक था।
गुंजाइशें ही न हों, जहाँ इज्तेहाद१२ की,
ऐसे में लुत्फ़ ऐ कुफ़्र १३ जो भाया तो ठीक था।
फ़िर ज़िन्दगी को रक्स की आज़ादी मिल गई,
'मुंकिर' ने साज़े-नव१४ जो उठाया तो ठीक था।
१-सत्य की ओर २-एकेश्वर ३-महा ईश्वर का जादू ४-आकाश वाणी ५-दोमुही बातें ६-उदार पोषक ७-सूरज ८-किरने ०-ब्रह्मांड १०-बुद्धि ११-प्यारे १२-संशोधन १३-कुफ्र का मज़ा १४-नया साज़.
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