ग़ज़ल
ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।
आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।
वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।
ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।
हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।
इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।
दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।
आमदे -रफ्तनी यहाँ की राहे-रस्म..,
ReplyDeleteबा-मुलाहिज़ा के मुल्के-खुदा है ये..,
कहीं दरो-दरबार के दहाने पे लिखा..,
मुरदारों का आखरी मरहला है ये.....
आमदे-रफ्त = आयात-निर्यात
मुल्के-खुदा = संसार
मरहला = पड़ाव