Thursday, June 19, 2014

Junbishen 802



नज़्म 

 ताखीर के अंदेशे 

खोल दो दिल के दरीचे को, तुम पूरा पूरा, 
मैं भी पर पूरे समेटूँ तो कोई बात बने, 
मुन्तज़िर तुम भी हो इक ख़ाली मकाँ के दर पे,
मैं भी उतरा हूँ ख़लालों से फ़ज़ा की छत पर. 

ज़ेहनी परवाज़ का पंछी था हुमा से आगे ,
हुस्न परियों का, फरिश्तों की तबअ थी चाहत ,
ढूँढता फिरता था, ये नादिर ए मुतलक़ कोई ,
तुम शायद हो पश ओ पेश में, मेरी ही तरह।

इनको गर ढूँढा किए, फिर तो जवानी दोनों ,
सूखे गुल बन के,किताबों में सिमट जाएंगे ,
दिल के दहके हुए आतिश कदे बुझ जाएँगे ,
आख़िरत की ये बहुत ही बुरी पामाली है .

पहली दस्तक के तकल्लुफ़ में हैं दोनों शायद ,
आओ इस धुंध की वादी में, क़दम बढ़ जाएं ,
और फिर आलम ए राहत में हो कुर्बत इतनी ,
मसलहत साज़ बनी बंदिशों की गाँठ खुलें ,

मेरे पेशानी पे तुम होटों से पैगाम लिखो ,
मैं सियह ज़ुल्फ़ पे तकमील के पैगाम पढूं .

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