गज़ल
ये जम्हूरियत बे असर है,
संवारे इसे, कोई नर है?
बहुत सोच कर खुद कशी कर,
किसी का तू ,नूरे नज़र है.
दिखा दे उसे क़ौमी दंगे,
सना ख्वान मशरिक, किधर हैं.
बहुत कम है पहचान इसकी,
रिवाजों में डूबा बशर है.
नहीं बन सका फर्द इन्सां,
कहाँ कोई कोर ओ कसर है.
है ऊपर न जन्नत, न दोज़ख,
खला है, नफ़ी है, सिफ़र है.
इबादत है, रोज़ी मशक्क़त,
अज़ान ए कुहन, पुर ख़तर है.
ये सोना है, जागने की मोहलत,
जागो! ज़िन्दगी दांव पर है.
है तक़लीद बेजा ये 'मुंकिर',
तेरे जिस्म पर एक सर है.
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*जम्हूरियत=गण-तन्त्र *नूरे नज़र=आँख का तारा *सना ख्वान मशरिक=पूरब का गुण-गण करने वाले*खला, नफ़ी=क्षितिज एवं शून्य * तकलीद=अनुसरण.
जऱ-ख़ेज जमीं है हस्ती जब तलक़..,
ReplyDeleteमुस्तक़बिल की गुजर-बसर है..,
जिन्दों को मुश्ते-ख़ाक मयस्सर..,
मुर्दों के हासिल में मुर्दा घर है.....
मुस्तक़बिल = आगे आने वाले