Wednesday, June 25, 2014

Junbishen 305


गज़ल

मुतालेआ करे चेहरों का, चश्मे नव ख़ेज़ी ,
छलक न जाए कहीं यह, शराब ए लब्रेजी.

हलाकतों पे है माइल, निज़ामे चंगेजी,
तरस न जाए कहीं, आरजू ए खूँ रेज़ी .

अगर है नर तो, बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,
मिसाले गाव, बुज़, ओ ख़र है तेरी ज़र ख़ेज़ी.

तू अपनी मस्त ख़ेरामी पे, नाज़ करती फिर,
लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी.

नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,
ये खात्मुन की सदा छोड़, कर ज़रा तेज़ी .

बचेगी मिल्लत ख़ुद बीं, की आबरू 'मुंकिर',
अगर मंज़ूर हों  मंसूर, शम्स ओ तबरेज़ी.
*****
*मुतलेआ= अद्ध्य्यन *निजामे=व्योवस्था *गाव, बुज़, खर=भेडें,बकरियां,गधे *उपजता *मिल्लत खुद बीन =इशारा वर्ग विशेष की ओर

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