Thursday, April 24, 2014

Junbishen 278



गज़ल

ख़िरद का मशविरा है, ये की अब अबस निबाह है,
दलीले दिल ये कह रही है, उस में उसकी चाह है.

मुक़ाबले में है जुबान कि क़दिरे कलाम है,
सलाम आइना करे है, कि सब जहाँ सियाह है.

ज़मीर की रज़ा है गर, किसी अमल के वास्ते,
बहेस मुबाहसे जनाब, उस पे ख्वाह मख्वाह है.

लहू से सींच कर तुम्हारी खेतियाँ, अलग हूँ मैं,
किसी तरह का मशविरह, न अब कोई सलाह है.

नदी में तुम रवाँ दवां, कभी थे मछलियों के साथ,
बला के दावेदार हो, समन्दरों की थाह है.

तलाश में वजूद के ये, ज़िन्दगी तड़प गई,
फुजूल का ये कौल है, कि चाह है तो राह है.
*****
*खिरद=विवेक * अबस व्यर्थ *क़दिरे कलाम =भाषाधिकार

1 comment:

  1. खैराती माल से ही है मलिके-मुल्कमालामाल..,
    तेरे महल्ले उसका वो महल है के ख़ानक़ाह है.....

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