रूबाइयाँ
दौलत से कबाड़ी की है, बोझिल ये हयात,
हैं रोज़ सुकून के, न चैन की रात,
बुझती ही नहीं प्यास कभी दौलत की,
देते नहीं राहत इन्हें सदका ओ ज़कात.
मस्जिद के ढहाने को विजय कहते हो,
तुम दिल के दुखाने को विजय कहते हो,
होती है विजय सरहदों पे, दुश्मन पर,
सम्मान गंवाने को विजय कहते हो.
हों फ़ेल मेरे ऐसे, मेरी नज़रें न झुकें,
सब लोग हसें और क़दम मेरे रुकें,
अफकार ओ अमल हैं लिए सर की बाज़ी.
'मुंकिर' की नफ़स चलती रहे या कि रुके,
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