रुबाई
है बात कोई गाड़ी यूँ चलती जाए ,
विज्ञान के युग में भी फिसलती जाए ,
ढ़ोती रहे सर पे , अवैज्ञानिक मिथ्या ,
पीढ़ी को लिए वहमों में ढलती जाए .
इक उम्र पे रुक जाए, जूँ बढ़ना क़द का,
कुछ लोगों में हश्र है, इसी तरह खिरद का,
मुजमिद खिरद को ढोते हैं सारी उम्र,
रहता है सदा पास मुसल्लत हद का.
कुछ रुक तो ज़माने को जगा दूं तो चलूँ,
मैं नींद के मारों को हिला दूं तो चलूँ,
ऐ मौत किसी मूज़ी को जप कर आजा,
सोई हुई उम्मत को उठा दूं तो चलूँ.
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