Monday, August 12, 2013

junbishen 56


नज़्म 

बनाम शरीफ़ दोस्त

तू जग चुका है और, इबादत गुज़ार1 है,
सोए हुए खुदा की, यही तुझ पे मार है।

दैरो हरम के सम्त, बढ़ाता है क्यूं क़दम?
डरता है तू समाज से! शैतां सवार है।

इस इल्मे वाहियात4 को तुर्बत5 में गाड़ दे,
अरबों की दास्तान, समाअत6 पे बार है।

हम से जो मज़हबों ने लिया, सब ही नक़्द था,
बदले में जो दिया है, सभी कुछ उधार है।

खाकर उठा हूँ , दोनों तरफ़ की मैं ठोकरें,
पत्थर से आदमी की, बहुत ज़ोरदार है।

तहज़ीब चाहती है, बग़ावत के अज़्म को,
तलवारे-वक्त देख ज़रा, कितनी धार है।

जिनको है रोशनी से, नहाना ही कशमकश,
उनके लिए यह रोशनी, भी दूर पार है।

'मुंकिर' के साथ आ, तो संवर जाए यह जहाँ,
ग़लती से यह समाज, खता का शिकार है।

१-उपासक २-मन्दिर और काबा ३-तरफ़ ४-ब्यर्थ -ज्ञान ५-समाधी 6श्रवण- शक्ति  -उत्साह

5 comments:

  1. वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो सहुलत होगी

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    1. ये है क्या, हटता कैसे है.....?

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  2. इस दौर के दैरो-हरम भी बा-कमाल हैं..,
    ज़रो-माल खुदा, बंदगी जाहे-जलाल है.….
    जाहे-जलाल = शान-शौकत

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  3. मसीहे-दम ये लफ्ज मेरे और क्या कहें..,
    बहरे अछूत नापाक-ज़ाद जो फटेहाल है.....

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