नज़्म
बनाम शरीफ़ दोस्त
तू जग चुका है और, इबादत गुज़ार1 है,
सोए हुए खुदा की, यही तुझ पे मार है।
दैरो हरम२ के सम्त३, बढ़ाता है क्यूं क़दम?
डरता है तू समाज से! शैतां सवार है।
इस इल्मे वाहियात4 को तुर्बत5 में गाड़ दे,
अरबों की दास्तान, समाअत6 पे बार है।
हम से जो मज़हबों ने लिया, सब ही नक़्द था,
बदले में जो दिया है, सभी कुछ उधार है।
खाकर उठा हूँ , दोनों तरफ़ की मैं ठोकरें,
पत्थर से आदमी की, बहुत ज़ोरदार है।
तहज़ीब चाहती है, बग़ावत के अज़्म७ को,
तलवारे-वक्त देख ज़रा, कितनी धार है।
जिनको है रोशनी से, नहाना ही कशमकश,
उनके लिए यह रोशनी, भी दूर पार है।
'मुंकिर' के साथ आ, तो संवर जाए यह जहाँ,
ग़लती से यह समाज, खता का शिकार है।
१-उपासक २-मन्दिर और काबा ३-तरफ़ ४-ब्यर्थ -ज्ञान ५-समाधी 6श्रवण- शक्ति -उत्साह
बहुत उम्दा नज्म है
ReplyDeletelatest post नेता उवाच !!!
latest post नेताजी सुनिए !!!
वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो सहुलत होगी
ReplyDeleteये है क्या, हटता कैसे है.....?
Deleteइस दौर के दैरो-हरम भी बा-कमाल हैं..,
ReplyDeleteज़रो-माल खुदा, बंदगी जाहे-जलाल है.….
जाहे-जलाल = शान-शौकत
मसीहे-दम ये लफ्ज मेरे और क्या कहें..,
ReplyDeleteबहरे अछूत नापाक-ज़ाद जो फटेहाल है.....