Tuesday, August 6, 2013

junbishen 54


रुबाइयाँ 

दिल वह्यी ओ इल्हाम से मुड जाता है, 
हक शानासियों से जुड़ जाता है,
देख कर ये पामालिए सरे-इंसान,
'मुंकिर' का दिमाग़ भक्क से उड़ जाता है. 

मुझको क्या कुछ समझा, परखा तुम ने ,
या अपने जैसा ही जाना तुमने,
मेरे ईमान में फ़र्क़ लाने का ख़याल ,
चन्दन पे गोया सांप पाला तुमने . 

हो सकता है ठीक दमा, मिर्गी ओ खाज,
बख्श सकता है जिस्म को रोगों का राज,
तार्बियतों की घुट्टी पिए है माहौल, 
मुश्किल है बहुत मुंकिर ज़ेहनों का इलाज.

No comments:

Post a Comment