Wednesday, July 6, 2011

शक के मोती


नज़्म


शक के मोती


शक जुर्म नहीं ,शक पाप नहीं ,शक ही तो इक पैमाना है ,
विश्वाश में तुम लुटते हो सदा ,विश्वाश में कब तक जाना है ।


शक लाज़िम है भगवान व खुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,
औतार पयम्बर पर शक हो ,जो ज़्यादा तर अफ़साने1हैं ।


शक हो सूफ़ी सन्यासी पर जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,
शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़ हैं दुआ बन बैठे हैं ।


शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,
जो पिए हैं खून की गंगा जल ,जो माले ग़नीमत3 खाए हैं ।

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब तो नहीं ?
जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,
क़ौमों को नई तालीम मिले ,ज़ेहनों को नई तासीर मिले ।

१-कहानी २- मिठिया ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य

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