Tuesday, July 12, 2011

ग़ज़ल - - - मुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी


ग़ज़लमुतलेआ करे चेहरों का चश्मे नव खेजी,

छलक न जाए कहीं यह शराब ए लब्रेजी. 




हलाकतों पे है माइल निजामे चंगेजी,

तरस न जाए कहीं आरजू ए खूँ रेजी.




अगर है नर तो बसद फ़िक्र शेर पैदा कर,

मिसाले गाव, बुज़, ओ खर है तेरी ज़र खेज़ी.




तू अपनी मस्त खरामी पे नाज़ करती फिर,

लुहा, लुहा से न डर, ए जबाने अंग्रेजी. 





नए निज़ाम के जानिब क़दम उठा अपने,

ये खात्मुन की सदा छोड़ कर ज़रा तेजी.




बचेगी मिल्लत खुद बीं की आबरू "मुंकिर",

अगर मंज़ूर हूँ मंसूर शम्स ओ तबरेज़ी.






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१ अध्ययन २-किशोरी चितवन ३-ध्यानाकर्षित ४-सैकड़ा ५- गे, बकरी,गधे ६-व्यावस्था ७-आखिरी ८- स्यंभू ९- दो संत मंसूर और तबरेज़

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