Tuesday, July 19, 2011

कुदरत का मशविरा


नज़्म 

कुदरत का मशविरा


अध्-जले ऐ पेड़! तू है, उम्र-रफ़्ता0 का शिकार,
कर्बे-गरमा झेलता, तनहा खडा है धूप में,
इब्ने-आदम को है बेचैनी, कि इन हालात में,
ढूँदता फिरता है पगला, मंदिरों-मस्जिद की छाँव।


जानता है तू कि बस ग़ालिब है, क़ुदरत का निज़ाम3,
ज़िन्दगी धरती पे जब, होती है बे बर्गो-समर4,
तब ज़मीं पर बार, बन जाता है हर पैदा शुदा,
है ज़मीं बर हक़, कि ढोने हैं उसे अगले जनम,
तेरे, मेरे, इनके, उनके, गोया हर मख्लूक़5 के।

ऐ शजर! कर तू , जुबां पैदा, बता नादान को,
बस तेरे जैसे मुक़ाबिल, ये भी हों मैदान में,
मत पनाहें ढूँढें अपनी, रूह की बाज़ार में,

नातवानी-ए-ज़ईफी7 का, न हल ढूँढें 'जुनैद',

काट लें बस हौसले से, यह सज़ाए उम्र क़ैद।
 

0-जरा-वस्था १-गर्मी की पीड़ा 3-आदम की औलाद ३-व्यवस्था ४-पत्ते एवं फल रहित ५ प्राणी वर्ग ६-पेड़ ७-बुढ़ाप काल

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