Saturday, March 7, 2009

ग़ज़ल - - - बात नाज़ेबा तुहारे मुंह से पहुंची यार तक


ग़ज़ल

बात नाज़ेबा तुम्हारे मुंह की पहुंची यार तक,
अब न ले कर जाओ इसको, मानी ओ मेयार तक।

पहले आ कर खुद में ठहरो, फिर ज़रा आगे बढो,
ऊंचे, नीचे रास्तों से, खित्ताए हमवार तक।

घुल चुकी है हुक्म बरदारी, 
तुम्हारे खून में,
मिट चुके हैं ख़ुद सरी, ख़ुद्दारी के आसार तक।

इक इलाजे बे दवा अल्फ़ाज़ की तासीर है,
कोई पहुंचा दे मरीज़े दिल के, गहरे ग़ार तक।

रब्त में अपने रयाकारी की आमेज़िश लिए,
पुरसाँ हाली में चले आए हो इस बीमार तक।

मैं तेरे दौलत कदे की, सीढयों तक आऊँ तो,
तू मुझे ले जाएगा, अपनी चुनी मीनार तक।

कुछ इमारत की तबाही, पर है मातम की फ़ज़ा,
हीरो शीमा नागा शाकी, शहर थे यलग़ार तक।

उम्र भर लूतेंगे तुझ को, मज़हबी गुंडे हैं ये,
फ़ासला बेहतर है इनसे, आलम बेदार तक।

3 comments:

  1. बहुत खूब लिखा ।

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  2. घुल चुकी है हुक्म बरदारी तुमरे खून में,

    मिट चुके हैं खुद सरी, खुद्दारी के आसार तक।

    बहुत बढिया ।

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  3. नमस्कार,
    आपसे मेरी गुजारिश है के आप जो उर्दू और फारसी के अल्फाज इस्तेमाल करते है उनका हिंदी जरुर लिखे इससे हम नए को सिखने का पूरा अवसर प्राप्त होगा और उनको भी जो जानकार नहीं है और लेख आम जनता की हो जायेगी...
    आपकी ग़ज़लों का मुरीद होता जा रहा हूँ... बहोत खूब कहते है आप...

    अर्श

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