ग़ज़ल
ज़ेहनी दलील, दिल के तराने को दे दिया,
इक ज़र्बे तीर इस के, दुखाने को दे दिया।
तशरीफ़ ले गए थे, जो सच की तलाश में,
इक झूट ला के और, ज़माने को दे दिया।
तुम लुट गए हो इस में, तुम्हारा भी हाथ है,
तुम ने तमाम उम्र, ख़ज़ाने को दे दिया।
अपनी ज़ुबां, अपना मरज़, अपना ही आइना,
महफ़िल की हुज्जतों ने, दिवाने को दे दिया।
आराइशों की शर्त पे, मारा ज़मीर को,
अहसास का परिन्द, निशाने को दे दिया।
"मुंकिर" को कोई खौफ़, न लालच ही कोई थी,
सब आसमानी इल्म, फ़साने को दे दिया.
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