ग़ज़ल
तुम तो आदी हो सर झुकने के,
बात सुनने के, लात खाने के।
क्या नक़ाइस हैं, पास आने के,
फ़ायदे क्या हैं, दिल दुखाने के?
क़समें खाते हो, बावले बन कर,
तुम तो झूटे हो इक ज़माने के।
लब के चिलमन से, मोतियाँ झांकें,
ये सलीक़ा है, घर दिखाने के।
ले के पैग़ाम ए सुल्ह आए हो,
क्या लवाज़िम थे, तोप ख़ाने के।
मैं ने पूछी थी खैरियत यूं ही,
आ गए दर पे, काट खाने के।
जिन के हाथों बहार बोई गईं,
हैं वह मोहताज दाने दाने के।
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क़समें खाते हो बावले बन कर,
ReplyDeleteतुम तो झूटे हो इक ज़माने के।
लब के चिलमन से मोतियाँ झांकें,
ये सलीका है घर दिखाने के।
ले के पैगाम ए सुल्हा आए हो,
क्या लवाजिम थे तोप खाने के।
हा हा हा बहुत बढ़िया व्यंग्य किया है। बधाई।
कमाल है साहब, ये ग़ज़ल है ?
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