ग़ज़ल
सुब्ह उफ़ुक़ है शाम शिफ़क़ है,
देख ले उसको, एक झलक है.
बात में तेरी सच की औसत,
दाल में जैसे, यार नमक है।
आए कहाँ से हो तुम ज़ाहिद?
आंखें फटी हैं, चेहरा फ़क है।
उसकी राम कहानी जैसी,
बे पर की ये ,सैर ए फ़लक़ है।
माल ग़नीमत ज़ाहिद खाए,
उसकी जन्नत एक नरक है।
काविश काविश, हासिल हासिल,
दो पाटों में जन बहक़ है।
धर्मों का पंडाल है झूमा,
भक्ति की दुन्या, मादक है।
हिंद है पाकिस्तान नहीं है,
बोल बहादर जो भी हक़ है।
कुफ़्र ओ ईमान, टेढी गलियां,
सच्चाई की, सीध सड़क है।
फ़ितरी बातें, एन सहीह हैं,
माफ़ौक़ुल फ़ितरत पर शक है।
कितनी उबाऊ हक़ की बातें,
"मुंकिर" उफ़! ये किस की झक है.
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क्षितिज लालिमा *शिफ़क़=शाम की क्षितिज लालिमा *काविश=जतन *फितरी=लौकिक *माफौकुल=अलौकिक
उफुक़=प्रातः
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