ग़ज़ल
गुस्ल ओ वज़ू से, दाग़े अमल धो रहे हो तुम,
मज़हब की सूइयों से, रफ़ू हो रहे हो तुम.
मज़हब की सूइयों से, रफ़ू हो रहे हो तुम.
हर दाना दाग़दार हुवा, देखो फ़स्ल का,
क्यूँ खेतियों में अपनी ख़ता, बो रहे हो तुम।
हथियार से हो लैस, हँसी तक नहीं नसीब,
ताक़त का बोझ लादे हुए, रो रहे हो तुम।
होना है वाक़ेआते मुसलसल वजूद का,
पूरे नहीं हुए हो, अभी हो रहे हो तुम।
इंसानी अज़मतों का, तुम्हारा ये सर भी है,
लिल्लाह पी न लेना, चरन धो रहे हो तुम।
"मुंकिर" को मिल रही है, ख़ुशी जो हक़ीर सी,
क्यूँ तुम को लग रहा है, कि कुछ खो रहे हो तुम।
*अजमतों=मर्याओं *लिल्लाह=शपत है ईश्वर की
हर दाना दागदार हुवा देखो फ़स्ल का,
ReplyDeleteक्यूँ खेतियों में अपनी खता बो रहे हो तुम।
वाह...लाजवाब...पूरी ग़ज़ल ही बेहद असरदार है...वाह
नीरज
वाह साहब. बेहतरीन ग़ज़ल. हर शेर लाजवाब.
ReplyDeleteपूरे नहीं हुए हो, अभी हो रहे हो तुम।
ReplyDeleteसहज शब्दों में कितनी बड़ी बात कह दी है आपने. बहुत ही अच्छी गजल. प्रशंसा के शब्द नहीं. बधाई.