Sunday, March 15, 2009

ग़ज़ल - - - मक्का सवाब है न मदीना सवाब है


ग़ज़ल

मक्का सवाब है, न मदीना सवाब है,
घर बार की ख़ुशी का, सफ़ीना सवाब है।

बे खटके हो हयात, तो जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो, तो पीना सवाब है।

माथे पे सज गया तो, पसीना सवाब है,
खंता उठा के लाओ, दफ़ीना सवाब है।

भूलो यही है ठीक, कि बद तर है इन्तेक़ाम,
बुग्ज़ ओ, हसद, निफ़ाक़, न क़ीना सवाब है।

जागो ऐ नव जवानो! क़नाअत हराम है,
जूझो, कहीं, ये नाने शबीना सवाब है?

"मुंकिर" को कह रहे हो, दहेरया है दोजखीदोज़खी  ,
आदाब ओ एहतराम, क़रीना सवाब है।

*बुग्जो, हसद, निफाक, कीना =बैर भावः *कनाअत=संतोष *नाने शबीना =बसी रोटी

3 comments:

  1. apne sabhi kartvyo ki poorti ke baad agar apne shauk poore kar liye zaiyen to kya bura hai?
    par kewal jab kartvya poore ho jaiye...

    बे खटके हो हयात की जीना सवाब है,
    बच्चों का हक़ अदा हो तो पीना सवाब है।

    sabse badhiya line...

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  2. बहुत बढ़िया गजल बधाई

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  3. माथे पे सज गया तो पसीना सवाब है,
    खंता उठा के लाओ दफीना सवाब है।

    Waah ! Bahut hi sundar gazal,hamesha ki tarah.

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