ग़ज़ल
मेरी हयात, उसके के ही राज़ों के वास्ते।
मुर्शिद के बांकपन के, तक़ाज़ों को देखिए,
नूरानियत है, जिस्म गुदाज़ों के वास्ते।
मंज़िल को अपनी, अपने ही पैरों से तय करो,
है हर किसी का कांधा, जनाज़ों के वास्ते।
सासें तेरे वजूद की, नग़मो की नज़र हों,
जुंबिश बदन की हों, तो हों साज़ों के वास्ते।
गाने लगी है गीत वोह, नाज़िल नुज़ूल की,
बुलबुल है आसमान के, बाज़ों के वास्ते।
"मुंकिर" वहां पे छूते, छुवाते हैं पैर को,
बज़्मे अजीब, दो ही तक़ाज़ों के वास्ते।
मुर्शिद=आध्यात्मिक गुरु *जिस्म गुदजों =हसीनाओं *नाज़िल नुज़ूल =ईश वानियाँ
muaafi chahunga magar gazal ke dusare she'r me kafiye me gadbadi hai... meri baaton ko anyatha naa len main bhi sikhne ki prakriya me hun...
ReplyDeletegazal ka kahan bahot hi umda hai ...dhero badhaee...
arsh
जहाँ तक मुझे लगता है आप गुदाजों लिखना चाहते थें मगर गलती से गुद्जों लिख गया है
ReplyDeleteमुझे मक्ता बहुत अच्छा लगा
वीनस केसरी