Friday, March 27, 2009

gazal - - - बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं



ग़ज़ल 

बहुत सी लग्ज़िशें ऐसी हुई हैं,
कि सासें आज भी लरज़ी हुई हैं.

मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं,
मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं.

ये क़द्रें जिन से तुम लिपटे हुए हो,
हमारे अज़्म की उतरी हुई हैं.

वो चादर तान कर सोया हुवा है,
हजारों गुत्थियाँ उलझी हुई हैं.

बुतों को तोड़ कर तुम थक चुके हो,
तरक्की तुम से अब रूठी हुई है.

शहादत नाम दो या फिर हलाकत,
सियासत, मौतें तेरी दी हुई हैं.

हमीं को तैरना आया न "मुंकिर",
सदफ़ हर लहर पर बिखरी हुई हैं.


2 comments:

  1. एक शे'र मेरे तरफ से मुआफी चाहूँगा...
    कदम भर चलना है बाकी तेरा अब
    तरक्की सामने रक्खी हुई है ..

    बहोत ही बढ़िया शे'र कहे है अपने...

    अर्श

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  2. मुंकिर जी को सलाम....कई दिनों बाद आ पाया हूँ आपके खज़ाने में....अद्‍भुत
    "मेरे इल्मो हुनर रोए हुए हैं/मेरी नादानियाँ हंसती हुई हैं" बहुत खूब सर...

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