ग़ज़ल
दो चार ही बहुत हैं, गर सच्चे रफ़ीक़ हैं,
बज़्मे अज़ीम से, तेरे दो चार ठीक हैं।
तारीख़ से हैं पैदा, तो मशकूक है नसब,
जुग़राफ़िया ने जन्म दिया, तो अक़ीक़ हैं।
कांधे पे है जनाज़ा, शरीके हयात का,
आखें शुमार में हैं कि, कितने शरीक हैं?
ईमान ताज़ा तर, तो हवाओं पे है लिखा,
ये तेरे बुत ख़ुदा तो, क़दीम ओ दक़ीक़ हैं।
इनको मैं हादसात पे, ज़ाया न कर सका,
आँखों की कुल जमा, यही बूँदें रक़ीक़ हैं।
रहबर मुआशरा तेरा, तहतुत्सुरा में है,
"मुंकिर" बक़ैदे सर, लिए क़ल्बे अमीक़ हैं.
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रफीक़=दोस्त *मशकूक=शंकित * नसब=नस्ल *जुगराफ़िया=भूगोल *दकीक़=पुरातन *तहतुत्सुरा=पाताल *क़ल्बे अमीक़ गंभीर ह्र्दैय के साथ
सून्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति, बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteईमान ताज़ा तर तो हवाओं पे है लिखा,
ReplyDeleteये तेरे बुत खुदा तो क़दीम ओ दकीक़ हैं।
सून्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति, बहुत-बहुत बधाई
क्या बात है साहब, खूब कहा.
ReplyDeleteKATHIN KAFIE PE KHUBSURAT GAZAL...
ReplyDeleteARSH