Wednesday, March 25, 2009

ग़ज़ल - - - ज़िन्दगी है कि मसअला है ये



ग़ज़ल 

ज़िन्दगी है कि मसअला है ये,
कुछ अधूरों का, सिलसिला है ये।

आँख झपकी तो, इब्तेदा है ये,
खाब टूटे तो, इन्तहा है ये।

वक़्त की सूईयाँ, ये सासें हैं,
वक़्त चलता कहाँ, रुका है ये।

ढूँढता फिर रहा हूँ ,खुद को मैं,
परवरिश, सुन कि हादसा है ये।

हूर ओ गिल्मां, शराब, है हाज़िर,
कैसे जन्नत में सब रवा है ये।

इल्म गाहों के मिल गए रौज़न,
मेरा कालेज में दाखिला है ये।

दर्द ए मख्लूक़ पीजिए "मुंकिर"
रूह ए बीमार की दवा ये हो।

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*गिल्मां=दस *रौज़न =झरोखा * मख्लूक़=जीव

1 comment:

  1. ढूँढता फिर रहा हूँ खुद को मैं,
    परवरिश सुन कि हादसा है ये।
    ....बहुत खूब...

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