Monday, March 16, 2009

ग़ज़ल - - - अपने ही उजाले में जिए जा रहा हूँ मैं


ग़ज़ल


अपने ही उजाले में, जिए जा रहा हूँ मैं,
घनघोर घटाओं को, पिए जा रहा हूँ मैं.

होटों को सिए, हाथ उठाए है कारवां,
दम नाक में रहबर के, किए जा रहा हूँ मैं।

मज़हब के हादसात, पिए जा रहे हो तुम,
बेदार हक़ायक़ को, जिए जा रहा हूँ मैं।

इक दिन ये जनता फूंकेगी, धर्मों कि दुकानें,
इसको दिया जला के, दिए जा रहा हूँ मैं।

फिर लौट के आऊंगा, कभी नई सुब्ह में,
तुम लोगों कि नफ़रत को, लिए जा रहा हूँ मैं।

फिर चाक न कर देना, सदाक़त के पैरहन,
"मुंकिर" का ग़रेबान सिए जा रहा हूँ मैं.

2 comments:

  1. होटों को सिए हाथ उठाए है कारवां,
    दम नाक में रहबर के किए जा रहा हूँ मैं।
    वाह क्या बात कही है...बेहद खूबसूरत ग़ज़ल...
    नीरज

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  2. फिर लौट के आऊंगा कभी नई सुब्ह में,
    तुम लोगों कि नफ़रत को लिए जा रहा हूँ मैं।


    BAHOT KHOOB YE SHE'R TO KAMAAL KA BAN PADAA HAI... DHERO BADHAAEE...

    ARSH

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