Tuesday, March 10, 2009

ग़ज़ल - - - कम ही जानें कम पहचानें बस्ती के इंसानों को


ग़ज़ल

कम ही जानें कम पहचानें, बस्ती के इंसानों को,
वक़्त मिले तो आओ जानें, जंगल के हैवानों को.

अश्के गराँ जब आँख में  आएँ, मत पोछें मत बहने दें,
घर में फैल के रहने दें, पल भर के मेहमानों को.

भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.

मुर्दा बाद किए रहती हैं, धर्म ओ मज़ाहिब की जंगें,
क़ब्रस्तनों की बस्ती को, मरघट के शमशानों को.


सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.

बंदिश हम पर ख़त्म हुई है, हम बंदिश पर ख़त्म हुए,
"मुंकिर" कफ़न की गाठें खोलो, रिहा करो बे जानो को.



5 comments:

  1. भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
    कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.


    Waah ! Lajawaab !

    Har sher ek se badhkar ek...dharm ke naam par kiye jaa rahe adharm ka sundar nirupan kiya hai aapne...bahut hi behtareen gazal...

    Aabhaar.

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  2. भगवन तेरे रूप हैं कितने, कितनी तेरी राहें हैं,
    कैसा झूला झुला रहा है, लोगों के अनुमानों को.

    -बहुत खूब!!


    होली महापर्व की बहुत बहुत बधाई एवं मुबारक़बाद !!!

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  3. सेहरा के शैतान को कंकड़, मारने वाले हाजी जी!
    इक लुटिया भर जल भी चढा, दो वादी हे भगवानो को.


    bahot khub likha hai aapne... waah waah,,,.. dhero badhaaeeyaan.... sath me holi ki shubhkaamanaayen...

    arsh

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  4. वाह जुनैद जी बहुत ही प्रभावशाली तेवरों को लिए हुए है आपकी ग़ज़ल। आपको होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  5. आप सभी को धन्येवाद और होली की शुभ कामनाए

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