Wednesday, July 4, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 105 हम घर के हिसारों का, सफ़र छोड़ रहे हैं,


105

हम घर के हिसारों का, सफ़र छोड़ रहे हैं,
दुन्या भी ज़रा देख लें, घर छोड़ रहे हैं.

मन में बसी वादी का, पता ढूंढ रहे हैं,
तन का बसा आबाद नगर छोड़ रहे है.

जाते हैं कहाँ पोंछ के, माथे का पसीना?
लगता है कोई, कोर व् कसर छोड़ रहे हैं.

फिर वाहिद ए मुतलक़ की, वबा फैल रही है,
फिर बुत में बसे देव, शरर छोड़ रहे हैं.

सर मेरा कलम है कि यूं मंसूर हुवा मैं,
'जुंबिश' को हवा ले उड़ी, सर छोड़ रहे हैं.

है सच की सवारी पे ही मेराज मेरा यह,
'मुंकिर' नहीं, जो 'उनकी' तरह छोड़ रहे हैं.

*हिसारों=घेरा *वाहिद ए मुतलक=एकेश्वरवाद यानि इसलाम *शरर=लपटें *.

،ہم گھر کے حصاروں کا سفر چھوڑ رہے ہیں 
دُنیا بھی ذرہ دیکھیں، کہ گھر چھوڑ رہے ہیں٠ 

،من میں بسی وادی کا پتہ، ڈھونڈھ ہی لینگے 
تن کا بسا، آباد نگر چھوڑ رہے ہیں٠

،جاتے ہیں کہاں پوچھ کے ماتھے کا پسینہ 
لگتا ہے کوئی کورو کسر چھوڑ رہے ہیں٠

،پھر واحد مطلق کی وبا پھیل رہی ہے
پھر بُت میں بسے دیو شرر چھوڑ رہے ہیں٠

،سر میرا قلم ہے، کہ یوں منصور ہوا میں 
'جنبش' کو ہوا لے اڑی ، سر چھوڑ رہے ہیں٠

،ہے سچ کی سواری پہ، یہ معراج ہے مرا  
منکرنہیں جوانکی طرح ، چھوڑ رہے ہیں٠

1 comment:


  1. देहरो-दहक़ान को शहर-शहर देखकर..,
    परिंदे शीशा-आलात लिए शजर छोड़ रहे हैं.....

    शीशा-आलात = झाड़-फ़ानूस

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