Wednesday, July 4, 2018

जुंबिशें - - -ग़ज़ल 104 मंज़िल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,



104

मंज़िल है पास, पुल का ज़रा एहतराम हो,
बानी पे इसके थोड़ा दरूद व् सलाम हो. 

गाँधी को कह रही है, वह शैतान का पिसर,
जम्हूरियत के मुंह पे, ज़रा सा लगाम हो. 

इतिहास के बनों में, शिकारी की ये कथा,
इसका पढ़ाना बंद हो, ये क़िस्सा तमाम हो. 

माल व् मता ए उम्र के, सिफ्रों को क्या करें,
गर सामने खड़ी ये हक़ीक़त की शाम हो. 

कुछ इस तरह से फ़तह, हमें मौत पर मिले,
सुक़राती एतदाल हो, मीरा का जाम हो. 

कितनी कुशादगी है शराब ए हराम में ,
सर पे चढ़ा जूनून ए अक़ीदा हराम हो. 

***
،منزل ہے پاس پُل کا ذرا احترم ہو 
بانی پہ اس کے تھوڑا دُرود و سلام ہو٠ 

،گاندھی کو کہہ رہی ہے وہ شیطان کا پسر 
جمہوریت کے مُنھہ پہ زرا سہ لگام٠ 

،تاریخ کے صفحات پر ظالم کی داستاں 
اسکا پڑھا نا بند ہو، یہ قصّہ تمام ہو٠ 

،مال و متاۓ عمر کے سفروں کو کیا کریں 
گر سامنے کھڑی یہ حقیقت کی شام ہو٠ 

،اِس طرح کی فتح مجھے موت پر ملے، کچھ 
سقراتی عتدال ہو، میرا کا جام ہو٠ 

No comments:

Post a Comment