Monday, February 4, 2019

जुंबिशें - - - नज़्म



मेरी खुशियाँ

जा पहुँचता हूँ कभी डूबे हुए सूरज तक,
ऐसा लगता है मेरी ख़ुशियाँ वहीं बस्ती हैं,
जी में आता है, वहीं जा के रिहाइश कर लूँ ,
क्या बताऊँ कि अभी काम बहुत बाक़ी हैं.

मेरी  ख़ुशियाँ मुझे तन्हाई में ले जाती हैं,
आलाम ए क़र्ब1 से कुछ देर छुड़ा लेती हैं,
पास वह आती नहीं, बातें bhi किया करती हैं,
बीच हम दोनों के इक सिलसिला ए लासिल्की2 है.

मेरी खुशियों की ज़रा ज़ेहनी बलूग़त3 देखो,
पूछती रहती हैं मुझ से मेरी बच्ची की तरह,
सच है रौशन तो ये तारीकियाँ ग़ालिब क्यूं हैं?
ज़िन्दगी गाने में सब को ये क़बाहतक्यूं है?

एक जुंबिश सी मेरी सोई ख़िरद पाती है,
अपनी लाइल्मी पे मुझ को भी मज़ा आता है,
देके थपकी मैं इन्हें टुक से सुला देता हूँ ,
इस तरह लोरियां मैं उनको सुना देता हूँ ----

"ऐ मेरी खुशियों! फलो,फूलो,बड़ी हो जाओ,
अपने मेराज के पैरों पे खड़ी हो जाओ,
इल्म आने दो नई क़दरें ज़रा छाने दो,
साज़ तैयार है, नगमो को सदा१० पाने दो,

तुम जवाँ होंगी, बहारों की फ़िज़ा छाएगी,
ज़िन्दगी फ़ितरते आदम की ग़ज़ल जाएगी.
रौशनी इल्मे नव११ की आएगी,
सारी तारीकियाँ मिटाएगी,

जल्दी सो जाओ सुब्ह उठाना है,
कुछ नया और तुमको पढ़ना है".

१- व्याकुळ २-वायर-लेस ३-बौधिक व्यसक्ता4-अंधकार ५ -विकार ६-अक्ल ७-अज्ञानता 
८-शिखर ९-मान्यताएं१०-आवाज़ ११-नई शिक्षा

میری خوشیاں 

جا پہنچتا ہوں کبھی ، ڈوبے ہوئے سورج تک
ایسا لگتا ہے ، میری خوشیاں وہیں رہتی ہیں 
جی میں آتا ہے ، وہیں جا کے سُکونت لے لوں 
کیا بتاؤں کہ ابھی ، کام بہت باقی ہہیں٠

میری خوشیاں مُجھے تنہائی میں لے جاتی ہیں 
قیدِ آلام سے کچھ لمحہ چُھڑا لیتی ہیں
پاس وہ آتی نہیں ، باتیں کیا کرتی ہیں 
بیچ ہم دونوں کے ، اک سلسلہ ے لا سلکی ہے٠

 میری خوشیوں کی ذرا کی ، ذرا ذہنی بلوغت دیکھو 
پوچھتی رہتی ہیں ، مجھ سے مری بچّی کی طرح 
سچ ہے روشن تو یہ تاریکیاں غالب کیوں ہیں ؟
زندزگی گانے میں ، انساں کو قباحت کیوں ہے ؟

ایک جنبش سی مری مُردہ خرد پاتی ہے 
اپنی لاعلمی پہ میں پھوٹ کے رو دیتا ہوں 
دیو پریوں بھری لوری کی تھپکیاں دیکر 
اور خود روتے ہوئے ، انکو سُلا دیتا ہوں 

ائے مری خوشیو ! پھلو ، پھولو ، بڑی ہو جاؤ 
اپنے معراج کے پیروں پہ کھڑی ہو جاؤ
علم آنے دو ، نئی قدریں ذرا چھانے دو 
ساز تیاّر ہیں ، نغموں کو صدا پانے دو 
تم جواں ہونگی ، بہاروں کی فضا آیگی 
زندگی فطرت آدم کی ، غزل گا یگی ٠
روشنی علم نو کی آے گی 
ساری تاریکیاں مٹا یگی 
جلد سو جاؤ ، صبح اٹھنا ہے 
تھوڑا کُچھ اور نیا پڑھنا ہے ٠ 

No comments:

Post a Comment